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संशोधनों के बाद संविधान में आई खामियों पर अब बहस जरूरी


अगस्त 2014 में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एक बहुत महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसका मुख्य मुद्दा यह था कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को मंत्रिमंडल के सदस्य चुनने का पूर्ण अधिकार है, लेकिन इस अधिकार का इस्तेमाल करने के लिए उनको कुछ सांविधानिक मर्यादाओं का निर्वाह करना चाहिए। यह जनहित याचिका साल 2005 में दायर हुई थी, जिसमें मांग की गई थी कि लालू प्रसाद यादव, मोहम्मद तस्लीमुद्दीन, एमएए फातमी और जय प्रकाश यादव को केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटाया जाए, क्योंकि उनके विरुद्ध आपराधिक मामले चल रहे थे। सन् 2006 में सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने यह मामला पांच जजों की संविधान पीठ को सौंप दिया जिसने अगस्त 2014 में अपना फैसला सुनाया। कानूनी मुद्दा यह था कि संविधान प्रधानमंत्री को यह अधिकार देता है कि वे राष्ट्रपति को केंद्रीय मंत्रिमंडल में नियुक्तियां करने के लिए नामों की सलाह दें तो क्या कुछ सीमाएं होनी चाहिए या नहीं? मुख्य निर्णय में यह कहा गया कि हालांकि मंत्री बनने से जुड़ी कोई अयोग्यता नहीं जोड़ी जा सकती, लेकिन प्रधानमंत्री को यह ध्यान रखना पड़ेगा कि जो शपथ वे लेते हैं, जो भरोसा प्रधानमंत्री में संविधान और संविधान के जरिये देश की जनता रखती है, उसको मद्देनजर रखते हुए वे ऐसे किसी व्यक्ति को मंत्रिमंडल में न लें, जिसके खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हों या जिसके विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप हों।’ इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में डॉ. भीमराव अंबेडकर के उस भाषण का उल्लेख किया है जो उन्होंने संविधान सभा में 25 नवंबर, 1949 को दिया था।

डॉ. अंबेडकर ने कहा था, “मैं समझता हूं कि एक संविधान चाहे कितना भी अच्छा हो, वह खराब निकलेगा, अगर उसको चलाने वाले ठीक नहीं होंगे। एक संविधान कितना भी खराब हो, अगर उसको चलाने वाले अच्छे निकलें, तो वह बहुत अच्छा साबित हो सकता है। संविधान कैसे काम करता है, यह केवल संविधान पर निर्भर नहीं है। संविधान प्रशासन का स्तंभ बन सकता है, जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, ये स्तंभ कैसे काम करते हैं, इनको चलाने वाले लोगों और राजनीतिक दलों पर निर्भर है।.. इसलिए भारत की जनता और उनके राजनीतिक दलों के बारे में कुछ जाने बगैर संविधान के भविष्य पर निर्णय करना निरर्थक है।” इसके बाद 30 दिसंबर, 1948 के अपने एक अन्य भाषण में डॉ. अंबेडकर ने कहा कि बड़ा मुद्दा यह है कि किसी भी ऐसे व्यक्ति को, जिसे सजा हो चुकी हो, मंत्री बनाया जाए या न बनाया जाए जैसी सभी योग्यताएं और अयोग्यताएं संविधान में लिखना हमारे लिए जरूरी है क्या? क्या ये काफी नहीं कि इसे देश के प्रधानमंत्री, देश की संसद और जनता पर छोड़ दिया जाए जो इन मंत्रियों के आचरण पर नजर रखेगी? मेरा यह ख्याल है कि हम यह मुद्दा प्रधानमंत्री और संसद की समझदारी और आम जनता की देखरेख पर छोड़ दें।

आज हम जानते हैं कि हमारे राजनीतिज्ञ डॉ. भीमराव अंबेडकर के उस भरोसे पर खरे नहीं उतरे हैं। नेता ही नहीं नौकरशाह बेलगाम हैं। कहा जाता है कि आईएएस अधिकारियों का नज़रिया समझना हो तो अंग्रेजी के इन तीनों अक्षरों “आई”, “ए” और “एस” से ही समझे जा सकते हैं। वे अपने राजनीतिक आकाओं की हर बात पर “आई एग्री, सर” कहते हैं जबकि जनसामान्य को वे “आई एम सॉरी” कहकर टरका देते हैं। ये नौकरशाह अब वही देखते हैं जो उनके राजनीतिक आका उन्हें देखने की इज़ाज़त देते हैं, वे वही बोलते हैं जो उन्हें बोलने को कहा जाता है। हाकिम और हाकिमों के चमचे जो उन्हें सुनाते हैं, नौकरशाह बस वही सुनते हैं। कौन नहीं जानता कि कानून-व्यवस्था की ऐसी दुर्दशा है कि सड़क पर कोई सुरक्षित नहीं है। खुद नौकरशाहों की अपनी बेटियां भी सुरक्षा गॉर्ड के बिना घर से बाहर नहीं जातीं, फिर भी उनका रंग-ढंग ऐसा है मानो राज्य भर में अमन-चैन हो। उनके कार्यालय में करप्शन का बोलबाला है। बिना छोटे-बड़े की जेब गरम किए बहाली, तबादला, टेंडर आदि कुछ भी मुमकिन नहीं है लेकिन वो सुशासन का राग अलापते हैं। इसके यूं तो कई कारण हैं पर एक मुख्य कारण ऐसा भी है जिस पर जनता की तो क्या, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों-संपादकों की नज़र भी नहीं गई है। हमारे देश में प्रधानमंत्री का पद एक ऐसा पद है जिसमें विरोधाभास भरे पड़े हैं। प्रधानमंत्री मजबूत हो और कल्पनाशील हो तो वह खुद को अधिक से अधिक शक्तियां देता रह सकता है जैसा कि अतीत में इंदिरा गांधी ने किया था और अब नरेंद्र मोदी लगतार करते जा रहे हैं।

दिसंबर 1989 में प्रधानमंत्री बने विश्वनाथ प्रताप सिंह का अपने ही उपप्रधानमंत्री चौ. देवी लाल से मनमुटाव हुआ तो अपनी कुर्सी मजबूत करने के प्रयास में उन्होंने लंबे समय से ठंडे बस्ते में पड़े मंडल आयोग की सिफारिशों को खोज निकाला और “अन्य पिछड़ी जातियों” के लिए आरक्षण लागू कर दिया। परिणाम यह है कि हमारा देश आज भी आरक्षण की आग में जल रहा है। स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री यदि कमज़ोर पड़ जाए तो वह देश का नुकसान कर सकता है और यदि प्रधानमंत्री आवश्यकता से अधिक शक्तिशाली हो जाए तो हानिकारक मनमानियों का दौर शुरू हो जाता है।

प्रधानमंत्री का अकेले ही मजबूत होना काफी नहीं है। पूरी तरह से अपनी ही नीतियों को लागू करने के लिए प्रधानमंत्री को संसद के दोनों सदनों में अलग-अलग रूप से तो बहुमत चाहिए ही, आधे राज्यों में प्रधानमंत्री के दल की सरकारें होना भी आवश्यक है। सन् 2014 में नरेंद्र मोदी स्वयं तो प्रधानमंत्री बन गए लेकिन राज्यसभा और विभिन्न राज्यों की विपक्षी सरकारें उनकी आंख की किरकिरी थीं। यही कारण है कि वे अपना मूल काम छोड़ कर राज्य विधानसभा चुनावों में समय लगाते रहे और जहां उन्हें बहुमत नहीं मिला वहां उन्होंने दलबदल के अनैतिक आचरण को अपनाने में ज़रा भी गुरेज़ नहीं किया। यही नहीं, दिल्ली का नाटक तो सरासर अजीब है जहां अरविंद केजरीवाल 70 में से 67 सीटें जीत कर भारी बहुमत में आये लेकिन एक अकेले उपराज्यपाल की मदद से मोदी जनता के चुने हुए 68 विधायकों के बहुमत को रौंद कर अपनी मनमानी कर रहे हैं क्योंकि संविधान उन्हें इसकी इज़ाज़त देता है।

विभिन्न संशोधनों के बाद हमारे संविधान में ऐसी खामियां आ गई हैं कि यदि प्रधानमंत्री के पास संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत हो और आधे राज्यों में उनकी समर्थक सरकारें हों तो वे चाहें तो सुप्रीम कोर्ट को हमेशा के लिए ख़त्म कर दें, चुनाव आयोग को ख़त्म कर दें, संसद को ख़त्म कर दें, यहाँ तक कि खुद संविधान को ही ख़त्म कर दें। यह कोई मज़ाक़ नहीं है। यह एक गंभीर मुद्दा है।

नेता और नौकरशाह तब तक परम शक्तिशाली और अत्यंत भ्रष्ट बने ही रहेंगे जब तक संविधान की इन कमियों को दूर नहीं किया जाता। ऐसा न तो नेता चाहेंगे और न ही नौकरशाह, इसलिए आवश्यक है कि जनता ही जागरूक होकर इस एक लक्ष्य के लिए काम करे ताकि हमारा देश सच्चे अर्थों में लोकतंत्र बन सके और उन्नति कर सके।

– पी. के. खुराना,
हैपीनेस गुरू व मोटिवेशनल स्पीकर

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